हम में से शायद ही कोई होगा
जिसने बचपन में
ये दाँट ना खाई हो।
बच्चों के अलावा
हर किसी को लगता है की राय
सिर्फ़ बड़ों की पूछी जानी
चाहिए। बच्चों से क्या पूछना?
बच्चे तो बहुत
छोटे होते हैं,
उन्हें क्या पता?
बच्चों का काम
है खेल कूद
करना, पढ़ाई करना,
वक़्त पर खाना
खाना, और माँ
बाप को बिना
परेशान किए "अच्छे
बच्चे" बनकर रहना।
बस। ये कोई
नहीं सोचता की शायद उनके
भी कुछ समझ
में आता होगा,
शायद वो भी कुछ सुझाव
दे सकें जो वाक़ई में
बड़े काम के हों...पर ना साहब,
हम बड़े, और ख़ासकर हम से भी बड़े, सिर्फ़
इतना मानकर चलते
हैं की बच्चों
को अनुबव काम
होनेसे उनमें सूझ
बूझ, परिपक्वता हो ही नहीं
सकती!
अब पिछले हफ़्ते
की ही बात
ले लीजिए। हम छुट्टियों के बाद बंबई
से लौट रहे
थे और हम लैंडिंग के बाद हमारे
समान की प्रतीक्षा कर रहे थे।
हमारे साथ हमारे
काफ़ी सह प्रवासी भी इस इंतज़ार में थे कि कब समान
आए और कब वे निकले
घर की तरफ़!
मेरे पतिदेव और बेटा आगे
खड़े होकर आनेवाले समान को देख
रहे थे। और मैं ट्राली
लेकर पीछे इंतज़ार रही थी।
मेरे
बग़ल में एक वयस्क महिला
उनके पोते के साथ खड़ीं
थीं।उनका पोता होगा
कोई सात-आँठ
साल का, और बस वे दोनों ही सफ़र करते
नज़र आ रहे
थे। पोते को ट्राली के साथ पीछे
खड़े होने को कहकर वह महिला ख़ुद
बैग लेने आगे
खड़ीं हो गयीं
थी। हर छोटे
बच्चे की तरह,
उनका पोता भी उनके साथ
बेल्ट के पास
खड़ा होना चाहता
था, पर वे बार बार
उसे पीछे जाने
को कह रही
थीं। बड़ी देर
तक हमारी बैग
नहीं आयी; और हमारे साथ
साथ उस बच्चे
का भी धीरज
कम होते जा रहा था।
इतने
में उन महिला
ने एक बैग
को देखते हुए
कहा, "लो, आ गया हमारा
समान; बस एक मिनट चुप
रहो अब; मैं
बैग ले लूँ..."
पर उनका पोता
भागता हुआ आगे
आया और बैग
को ग़ौर से देखकर झट से बोल
पड़ा, "दादी, ये हमारी बैग
नहीं है!" महिला ने सहमते हुए
हम सह यात्रियों की तरफ़ देखा;
और बोली, " चुप कर,
तुझे क्या मालूम?
देख तो, बिलकुल
अपनी बैग की तरह दिखती
है! अपनी ही बैग है,
तू जा, पीछे
जाके खड़ा हो जाकर, जा!"
लेकिन इतने में
वो बैग आगे
निकल गया और उनके हाथ
ना आया! इसपे
महिला को शायद
ग़ुस्साआया, और उन्होंने अपने पोते को हल्का सा पीछे ढकेलते
हुए कहा, "देख! अब तो बैग
भी निकल गया
हाथ से, अब फिर रुकना
पड़ेगा।"
अब बच्चा भले
ही उम्र में
छोटा हो, स्वाभिमान तो उसका भी बहुत बड़ा
होता है। जैसे
ही दादी ने डाँटा, बच्चा
उदास हो गया;
और चुपचाप ट्राली
पे जाकर बैठ
गया।
कुछ
देर बाद, बेल्ट
का एक और चक्कर काटकर
जा वही बैग
वापस आया, तो देविजी बिलकुल
तैय्यार खड़ी थी और उन्होंने झट से बैग
को बेल्ट से उतार लिया!
लेकिन जैसे ही उन्होंने बैग
हाथ में लिया,
उन्होंने देखा की उसपर लेबल
तो किसी और के नाम
का लगा था!
वाक़ई, वो बैग
उनकी नहीं थी।
वो बैग उनकी
बैग की तरह
दिख ज़रूर रही
थी, पर थी किसी और की!
अपने
आप से कुछ
बड़बड़ाते हुए उन महिला ने वो बैग
फिर से बेल्ट
पर वापस रख दीया और आस पास
वाले हम लोगों
से बातें करने
लगी की कैसे
बैग्ज़ एक जैसे
दिखने से लोगों
को मुश्किलें होतीं
हैं, वग़ैरह वग़ैरह। हम सबने भी उनसे सहनुभूति दर्शाई और अपने
अपने समान की प्रतीक्षा करते
रहे।
अब तक उस छोटे बच्चे
का मूड फिरसे
सुधर गया था;
और वह फिर
से अपनी दादी
के साथ गप्पें
लगता हुआ अपने
समान के इंतज़ार करने लगा। आख़िर
में काफ़ी देर
बाद, दूर से एक बैग
को आते देख
वो बच्चा उछाल
पड़ा! "दादी, वो रही हमारी
बैग!" और सच में, जब उन महिला
ने टैग देखा
तो वो बैग
उन्ही की निकली!
"हाँ हाँ, यही
हैं हमारी बैग!
चलो मिल गया
समान, अब चलें..."
और उनका पोता
फिर उनके पीछे
पीछे ट्राली को ढहकेलता चला
गया।
इस दौरान हमारा
समान भी मेरे
पतिदेव के हाथ
लग गया था;
और हम निकास
की तरफ़ चलने
लगे। जब आख़िरकार सामान रखवा कर हम टैक्सी
में बैठे, तब हमारे बेटे
ने कहा, "पापा, आपने
देखा उस लड़के
की दादी ने उसे सबके
सामने डाँटा! और उसकी कोई
ग़लती भी नही
थी! आप बड़े
हमेशा ऐसा करते
हो। हम बच्चों
से ऐसे बर्ताव
करते हो के जैसे हमारे
पास दिमाग़ ही नहीं!"
सच कड़वा होता
है। और जब कोई बच्चा
सच्चाई को इतनी
सफ़ाई से हमारे
सामने रख दे,
तो उसकी कड़वाहट और भी बढ़
जाती है। ये क़िस्सा जो हम सबने
आज देखा, हमारे
अपने घर में
भी कितनी बार
दोहराया गया है।
आपके घर में
ऐसा होता होगा
ना? अगर आप नहीं तो आप के बड़े तो ऐसा कभी
कभी मानकर चलते
होंगे की बच्चे
नासमझ होते हैं,
उन्हें किसी बात
के बारे में
क्या पता!
हमारे
बेटे ने तो ये सवाल
पूछकर मुझे निरुत्तर कर दिया। और ये सोचने
पर मजबूर भी,
के क्यूँ हम बड़े ये ठान लेते
हैं की छोटे
होने से बच्चों
को कुछ नहीं
समझता? क्यूँ उन्हें
मौक़ा नहीं देते
उनकी बात कहने
का? क्यूँ उन्हें
अपने बराबरी की आवाज़ में
बात करने का मौका नहीं
देते हम? क्या
हो जाएगा? कुछ
ग़लत सलत कह देंगे बच्चे?
तो कह दें;
कौनसा आसमान टूट
पड़ेगा? उनका ज़रा
सा दिल ही रख लें
हम। उनका आत्मविश्वास बढ़ा दें। दिखाएँ
उन्हें की वे हमारे लिए
बहुत मायने रखते
हैं।
हमें
बचपन से सिखाया
जाता है, जब दो बड़े
बात कर रहे
हो, तो छोटों
ने बीच में
नहीं बोलना चाहिए।
जैसे जैसे हम बड़े होते
जाते हैं, हम बड़ों का आदर करना
सीख जातें हैं।
और प्रायः यही
कोशिश करते हैं
के हम कभी
बड़ों को टोके
ना; और जब हम माँ
बाप बन जाते
हैं, तो हम भी अपने
बच्चों को यही
सीख देते हैं।
पर मुझे लगता
है हमें बच्चों
को इस सीख
के साथ साथ
उनकी राय प्रदर्शित करने का मौका
और स्वतंत्र्य भी देना चाहिए।
आप को क्या
लगता है? क्या
बच्चों की राय
लेना सही है?
हमें आपके कामेंट्स का इंतज़ार रहेगा!
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